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| = اللوامع =
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| من بين هلال صوم وهلال العيد | | من بين هلال صوم وهلال العيد |
15. satır: |
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| بديع الزمان سعيد النّورسيّ | | بديع الزمان سعيد النّورسيّ |
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| تنبيه | | == تنبيه == |
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| إنّ هذا الديوان الموسوم بـ«اللوامع» لا يجري مجرى الدواوين الأخرى على نمط واحد متناولا عددا من المواضيع؛ ذلك لأن المؤلف المحترم قد وضح فيه المقولات البليغة المختصرة جدا لأحد مؤلفاته القديمة «نوى الحقائق»، ولأنه قد كتب على أسلوب النثرِ، زد على ذلك لا يجنح إلى الخيالات والانطلاق من أحاسيس غير موزونة، كما هو في سائر الدواوين. فلا يضم هذا الديوان بين دفتيه إلّا ما هو موزون بميزان المنطق وحقائق القرآن والإيمان. فهو درس علمي بل قرآني وإيماني ألقاه المؤلف على مسامع ابن أخيه وأمثاله من الطلاب الذين لازموه. ولقد اقتدى أستاذنا واستفاض من نور ﴿ وَمَا عَلَّمْنَاهُ الشِّعْرَ ﴾ فما كان له ميل إلى النظم والشعر ولم يشغل نفسه بهما أبدا، كما بيّنه في التنبيه المتصدر للأثر وأدركنا نحن أيضا منه هذا الأمر. | | إنّ هذا الديوان الموسوم بـ«اللوامع» لا يجري مجرى الدواوين الأخرى على نمط واحد متناولا عددا من المواضيع؛ ذلك لأن المؤلف المحترم قد وضح فيه المقولات البليغة المختصرة جدا لأحد مؤلفاته القديمة «نوى الحقائق»، ولأنه قد كتب على أسلوب النثرِ، زد على ذلك لا يجنح إلى الخيالات والانطلاق من أحاسيس غير موزونة، كما هو في سائر الدواوين. فلا يضم هذا الديوان بين دفتيه إلّا ما هو موزون بميزان المنطق وحقائق القرآن والإيمان. فهو درس علمي بل قرآني وإيماني ألقاه المؤلف على مسامع ابن أخيه وأمثاله من الطلاب الذين لازموه. ولقد اقتدى أستاذنا واستفاض من نور ﴿ وَمَا عَلَّمْنَاهُ الشِّعْرَ ﴾ فما كان له ميل إلى النظم والشعر ولم يشغل نفسه بهما أبدا، كما بيّنه في التنبيه المتصدر للأثر وأدركنا نحن أيضا منه هذا الأمر. |
447. satır: |
444. satır: |
| إلّا أن قسما منها اقترب من التوحيد، وسيجد فيه الفلاح. | | إلّا أن قسما منها اقترب من التوحيد، وسيجد فيه الفلاح. |
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| وهي الآن على وشك التمزق، (<ref>إشارة إلى النتائج الرهيبة للحرب العالمية الأولى، بل يخبر عن الحرب العالمية الثانية.(المؤلف).</ref>) إن لم تنطفئ فإنها تتصفّى وتكون مُلكَ الإسلام (إذ تجد نفسها أمام الحقائق الإسلامية الجامعة لأسس النصرانية الحقيقية).
| | وهي الآن على وشك التمزق، (<ref>إشارة إلى النتائج الرهيبة للحرب العالمية الأولى، بل يخبر عن الحرب العالمية الثانية.(المؤلف).</ref>) إن لم تنطفئ فإنها تتصفّى وتكون مُلكَ الإسلام (إذ تجد نفسها أمام الحقائق الإسلامية الجامعة لأسس النصرانية الحقيقية). |
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| هذا سر عظيم أشار إليه الرسول الكريم ﷺ بنـزول عيسى عليه السلام، وأنه سيكون من أمته ويعمل بشريعته. (<ref> | | هذا سر عظيم أشار إليه الرسول الكريم ﷺ بنـزول عيسى عليه السلام، وأنه سيكون من أمته ويعمل بشريعته. (<ref> |
2.129. satır: |
2.126. satır: |
| فرفعنا أبصارنا مضطرين إلى الأعلى مستمدين العون من الأجرام، ولكن رأيناها مرعبة مهيبة، تهددنا، | | فرفعنا أبصارنا مضطرين إلى الأعلى مستمدين العون من الأجرام، ولكن رأيناها مرعبة مهيبة، تهددنا، |
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| إذ إنها كالقذائف المنطلقة تسير بسرعة فائقة تجوب بها أنحاء الفضاء، من دون اصطدام،
| | إذ إنها كالقذائف المنطلقة تسير بسرعة فائقة تجوب بها أنحاء الفضاء، من دون اصطدام، |
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| يا تُرى لو أخطأتْ سيرها وضلّت، إذن لانفلق كبد العالم، عالم الشهادة. والعياذ بالله. أليس أمره موكولا إلى المصادفة، هل يأتي منها خير؟! | | يا تُرى لو أخطأتْ سيرها وضلّت، إذن لانفلق كبد العالم، عالم الشهادة. والعياذ بالله. أليس أمره موكولا إلى المصادفة، هل يأتي منها خير؟! |
2.207. satır: |
2.204. satır: |
| إن برهان الإيمان هو القرآن والوجدان، ذلك السر الإنساني. | | إن برهان الإيمان هو القرآن والوجدان، ذلك السر الإنساني. |
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | إرفعْ رأسك يا أخي، وألق نظرة في الكائنات، وحاورها، أما كانت موحشة في طريقنا الأولى والآن تبتسم وتنشر البشر والسرور؟ |
| Şimdi başını kaldır, şu kâinata bir bak, onun ile bir konuş. Evvelki yolumuzda pek müthiş görünürdü. Şimdi de mütebessim her tarafa gülüyor, nâzenînane niyaz ve âvâz.
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| | ألا ترى قد أصبحت عيوننا كالنحلة تطير إلى كل جهة في بستان الكون هذا، وقد تفتحت فيه الأزهار في كل مكان، وتمنح الرحيق الطهور. |
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| | ففي كل ناحية انس وسلوان، وفي كل زاوية محبة ووئام.. فهي ترتشف تلك الهدايا الطيبة، وتقطّر شهد الشهادة، عسلا على عسل. |
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| | وكلما وقعت أنظارنا على حركات النجوم والشموس، تسلِّمها إلى يد حكمة الخالق، فتستلهم العبرة وجلوة الرحمة. |
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| | حتى كأن الشمس تتكلم معنا قائلة: |
| Görmez misin gözümüz arı-misal olmuştur, her tarafa uçuyor. Kâinat bostanıdır, her tarafta çiçekler, her çiçek de veriyor ona bir âb-ı leziz.
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| | «يا إخوتي! لا تستوحشوا مني ولا تضجروا! فأهلا وسهلا بكم. فقد حللتم أهلا ونـزلتم سهلا. أنتم أصحاب المنـزل، وأنا المأمور المكلف بالإضاءة لكم. |
| Hem ünsiyet, teselli, tahabbübü veriyor. O da alır, getirir; şehd-i şehadet yapar. Balda bir bal akıtır, o esrarengiz şehbaz.
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| | أنا مثلكم خادم مطيع سخرّني الأحد الصمد للإضاءة لكم، بمحض رحمته وفضله. فعليّ الإضاءة والحرارة وعليكم الدعاء والصلاة. |
| Harekât-ı ecrama ya nücum ya şümusa nazarımız kondukça ellerine verirler Hâlık’ın hikmetini. Hem mâye-i ibreti hem cilve-i rahmeti alır ediyor pervaz.
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| | فيا هذا! هلّا نظرت إلى القمر.. إلى النجوم.. إلى البحار.. كل يرحب بلسانه الخاص ويقول: حياكم وبياكم. فأهلا وسهلا بكم! |
| Güya şu güneş bizlerle konuşuyor, der: “Ey kardeşlerimiz! Tevahhuşla sıkılmayınız, ehlen sehlen merhaba, hoş teşrif ettiniz. Menzil sizin, ben bir mumdar-ı şehnaz.
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| | فانظر يا أخي بمنظار التعاون، واستمع بصماخ النظام، كل منها يقول: «نحن أيضا خدّام مسخرون. نحن مرايا رحمة الرحمن. لا نسأم من العمل أبدا. لا تتضايقوا منا». |
| Ben de sizin gibiyim fakat safi, isyansız, mutî bir hizmetkârım. O Zat-ı Ehad-i Samed ki mahz-ı rahmetiyle hizmetinize beni musahhar-ı pür-nur etmiş. Benden hararet, ziya; sizden namaz ve niyaz.”
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| | فلا تخيفنكم نعرات الزلازل وصيحات الحوادث، فهي ترنمات الأذكار ونغمات التسبيحات، وتهاليل التضرعات.. |
| Yahu, bakın kamere! Yıldızlarla denizler her biri de kendine mahsus birer lisanla: “Ehlen sehlen merhaba!” derler. “Hoş geldiniz, bizi tanımaz mısınız?”
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| | نعم، إنّ الذي أرسلكم إلى هنا، هو ذلك الجليل الجميل الذي بيده زمام كل أولئك.. إنّ عين الإيمان تقرأ في وجوهها آيات الرحمة. |
| Sırr-ı teavünle bak, remz-i nizamla dinle. Her birisi söylüyor: “Biz de birer hizmetkâr, rahmet-i Zülcelal’in birer âyinedarıyız; hiç de üzülmeyiniz, bizden sıkılmayınız.”
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| | أيها المؤمن يا ذا القلب اليقظ! ندع عيوننا لتخلد إلى شيء من الراحة، ونسلّم آذاننا للإيمان بدلا منها. ولنستمع من الدنيا إلى نغمات لذيذة.. |
| Zelzele na’raları, hâdisat sayhaları sizi hiç korkutmasın, vesvese de vermesin. Zira onlar içinde bir zemzeme-i ezkâr, bir demdeme-i tesbih, velvele-i naz u niyaz.
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| | فالأصوات التي كانت تتعالى في طريقنا السابقة -وظنناها أصوات مآتم عامة ونعيات الموت- هي أصوات أذكار في هذه الطريق وتسابيح وحمد وشكر. |
| Sizi bize gönderen o Zat-ı Zülcelal, ellerinde tutmuştur bunların dizginlerini. İman gözü okuyor yüzlerinde âyet-i rahmet, her biri birer âvâz.
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| | فترنمات الرياح ورعدات الرعود ونغمات الأمواج.. تسبيحات سامية جليلة وهزجات الأمطار وسجعات الأطيار.. تهاليل رحمة وعناية.. |
| Ey mü’min-i kalbi hüşyar! Şimdi gözlerimiz bir parça dinlensinler, onların bedeline hassas kulağımızı imanın mübarek eline teslim ederiz, dünyaya göndeririz. Dinlesin leziz bir saz.
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| | كلها مجازات تومئ إلى حقيقة. |
| Evvelki yolumuzda bir matem-i umumî hem vaveylâ-yı mevtî zannolunan o sesler, şimdi yolumuzda birer nevaz u namaz, birer âvâz u niyaz, birer tesbihe âğâz.
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| | نعم، إن صوت الأشياء، صدى وجودها، يقول: أنا موجود.وهكذا تنطق الكائنات كلها معا وتقول: أيها الإنسان الغافل! لا تحسبنا جامدات؛ |
| Dinle, havadaki demdeme, kuşlardaki civcive, yağmurdaki zemzeme, denizdeki gamgama, ra’dlardaki rakraka, taşlardaki tıktıka birer manidar nevaz…
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| | فالطيور تنطق، في تذوق نعمةٍ، أو نـزول رحمةٍ، فتزقزق بأصوات عذبة، بأفواه دقيقة ترحابا بنـزول الرحمة المهداة. حقا، النعمة تنـزل عليها، والشكر يديمها، |
| Terennümat-ı hava, naarat-ı ra’diye, nağamat-ı emvac, birer zikr-i azamet. Yağmurun hezecatı, kuşların seceatı birer tesbih-i rahmet, hakikate bir mecaz.
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| | وهي تقول رمزا: أيتها الكائنات! يا إخوتي! ما أطيب حالنا! ألا نُربَّى بالشفقة والرأفة.. نحن راضون عما نحن عليه من أحوال.. وهكذا تبث أناشيدها بمناقيرها الدقيقة، |
| Eşyada olan asvat, birer savt-ı vücuddur: Ben de varım derler. O kâinat-ı sâkit, birden söze başlıyor: “Bizi camid zannetme, ey insan-ı boşboğaz!”
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| | حتى تحول الكائنات كلها إلى موسيقى رفيعة. |
| Tuyûrları söylettirir ya bir lezzet-i nimet ya bir nüzul-ü rahmet. Ayrı ayrı seslerle, küçük âğâzlarıyla rahmeti alkışlarlar, nimet üstünde iner, şükür ile eder pervaz.
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| | إنّ نور الإيمان هو الذي يسمع أصداء الأذكار وأنغام التسابيح، حيث لا مصادفة ولا اتفاقية عشواء. |
| Remzen onlar derler: “Ey kâinat kardeşler! Ne güzeldir halimiz, şefkatle perverdeyiz, halimizden memnunuz.” Sivri dimdikleriyle fezaya saçıyorlar birer âvâz-ı pür-naz.
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| | أيها الصديق! ها نحن نغادر هذا العالم المثالي، ونقف على عتبة العقل وندخل ميدانه، لنـزن الأمور بميزانه كي نميّز الطرق المختلفة. |
| Güya bütün kâinat ulvi bir musikîdir, iman nuru işitir ezkâr ve tesbihleri. Zira hikmet reddeder tesadüf vücudunu, nizam ise tard eder ittifak-ı evhamsâz.
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| | فطريقنا الأولى: طريق المغضوب عليهم والضالين. تُورِث الوجدان حسا أليما وعذابا شديدا حتى في أعمق أعماقه، فتطفح تلك المشاعر المؤلمة إلى الوجوه، |
| Ey yoldaş! Şimdi şu âlem-i misalîden çıkarız, hayalî vehimden ineriz, akıl meydanında dururuz, mizana çekeriz, ederiz yolları ber-endaz.
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| | فنخادع أنفسنا مضطرين للنجاة من تلك الحالة، ونحاول التسكين والتنويم وإبطال الشعور وإلغائه.. وإلّا فلا نطيق تجاه استغاثات وصيحات لا تنقطع! |
| Evvelki elîm yolumuz mağdub ve dâllîn yolu, o yol verir vicdana, tâ en derin yerine hem bir hiss-i elîmi hem bir şedit elemi. Şuur onu gösterir. Şuura zıt olmuşuz.
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| | فالهوى يبطل الحس ويخدّر الشعور، والشهوات الساحرة تطلب اللهو، كي تخدع الوجدان وتستغفله وتنوم الروح وتسكّنها لئلا تشعر بالألم. |
| Hem kurtulmak için de muztar ve hem muhtacız; ya o teskin edilsin ya ihsas da olmasın; yoksa dayanamayız, feryad u fîzar dinlenmez.
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| | لأن ذلك الشعور يحرق الوجدان حتى لا يكاد يطاق صراخه من شدة الألم.. ألا إن ألم اليأس لا يطاق حقا! |
| Hüda ise şifadır; heva, iptal-i histir. Bu da teselli ister, bu da tegafül ister, bu da meşgale ister, bu da eğlence ister. Hevesat-ı sihirbaz.
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| | إذ كلما ابتعد الوجدان عن الصراط المستقيم اشتدت عليه تلك الحالة، حتى إن كل لذة تترك أثرا من الألم، |
| Tâ vicdanı aldatsın, ruhu tenvim edilsin, tâ elem hissolmasın. Yoksa o elem-i elîm, vicdanı ihrak eder; fîzara dayanılmaz, elem-i yeis çekilmez.
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| | ولا تجدي بهرجة المدنية الممزوجة بالشهوات والهوى واللهو.. إنها مَرْهَم فاسد وسمّ منوّم للضيق الذي يولده الضلال. |
| Demek, sırat-ı müstakimden ne kadar uzak düşse o derece nisbeten şu halet tesir eder, vicdanı bağırttırır. Her lezzetin içinde elemi var, birer iz.
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| | فيا صديقي العزيز! لقد شعرنا بالراحة من حالتنا في الطريق الثانية المنورة، فتلك هي منبع اللذات وحياة الحياة، بل تنقلب فيها الآلام إلى لذائذ.. |
| Demek heves, heva, eğlence, sefahetten memzuç olan şaşaa-i medeni, bu dalaletten gelen şu müthiş sıkıntıya bir yalancı merhem, uyutucu zehirbaz.
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| | هكذا عرفناها، فهي تبعث الاطمئنان إلى الروح -حسب قوة الإيمان- والجسد متلذذ بلذة الروح، والروح تتنعم بنعم الوجدان. |
| Ey aziz arkadaşım! İkinci yolumuzda, o nurani tarîkte bir haleti hissettik; o haletle oluyor hayat, maden-i lezzet. Âlâm, olur lezaiz.
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| | إنّ في الوجدان سعادة عاجلة مندرجة فيه، إنها فردوس معنوي مندمج في سويداء القلب. والتفكر يقطّرها ويذيقها الإنسان. أما الشعور فهو الذي يُظهرها. |
| Onunla bunu bildik ki mütefavit derecede, kuvvet-i iman nisbetinde ruha bir halet verir. Ceset ruhla mültezdir, ruh vicdanla mütelezziz.
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| | ونعلم الآن: أنه بمقدار تيقظ القلب، وحركة الوجدان، وشعور الروح، تزداد اللذة والمتعة، وتنقلب نار «الحياة» نورا وشتاؤها صيفا. |
| Bir saadet-i âcile, vicdanda mündericdir; bir firdevs-i manevî, kalbinde mündemicdir. Düşünmekse deşmektir, şuur ise şiar-ı râz.
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| | وهكذا تنفتح أبواب الجنان على مصراعيها في الوجدان، وتغدو الدنيا جنة واسعة تجول فيها أرواحنا، بل تعلو علو الصقور، بجناحي الصلاة والدعاء. |
| Şimdi ne kadar kalp ikaz edilirse, vicdan tahrik edilse, ruha ihsas verilse lezzet ziyade olur hem de döner ateşi nur, şitası yaz.
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| | وأستودعكم الله يا صديقي الحميم. ولْندْعُ معا كل لأخيه. نفترق الآن وإلى لقاءٍ. |
| Vicdanda firdevslerin kapıları açılır, dünya olur bir cennet. İçinde ruhlarımız, eder pervaz u perdaz, olur şehbaz u şehnaz, yelpez namaz u niyaz.
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| | اللّهم اهدنا الصراط المستقيم. |
| Ey aziz yoldaşım! Şimdi Allah’a ısmarladık. Gel, beraber bir dua ederiz, sonra da buluşmak üzere ayrılırız…
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | == جواب موجّه إلى الكنيسة الأنكليكية == |
| اَللّٰهُمَّ اِه۟دِنَا الصِّرَاطَ ال۟مُس۟تَقٖيمَ اٰمٖينَ
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | سأل ذات يوم قسيس حاقد، ذلك السياسي الماكر، العدوّ الألدّ للإسلام، عن أربعة أمور طالبا الإجابة عنها في ستمائة كلمة. |
| == Anglikan Kilisesine Cevap ==
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| Bir zaman bîaman İslâm’ın düşmanı, siyasî bir dessas, yüksekte kendini göstermek isteyen vesvas bir papaz, desise niyetiyle hem inkâr suretinde
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | سألها بغية إثارة الشبهات، مستنكرا ومتعاليا، وبشماتة متناهية، وفي وقت عصيب حيث كانت دولته تشد الخناق في مضايقنا. |
| Hem de boğazımızı pençesiyle sıktığı bir zaman-ı elîmde pek şematetkârane bir istifham ile dört şey sordu bizden.
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | فينبغي الإجابة بـ: «تبا لك!» تجاه شماتته، وبالسكون عليه بسخط تجاه مكره ودسيسته، فضلا عن جواب مسكت ينـزل به كالمطرقة تجاه إنكاره. |
| Altı yüz kelime istedi. Şematetine karşı yüzüne “Tuh!” demek, desisesine karşı küsmekle sükût etmek, inkârına karşı da
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | فأنا لا أضعه موضع خطابي، بل أجوبتنا لمن يلقي السمع وينشد الحق وهي الآتية: |
| Tokmak gibi bir cevab-ı müskit vermek lâzımdı. Onu muhatap etmem. Bir hakperest adama böyle cevabımız var. O dedi '''birincide:'''
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | فلقد قال في السؤال الأول: ما دين محمد ﷺ؟. قلت: إنه القرآن الكريم. أساسُ قصده ترسيخ أركان الإيمان الستة وتعميق أركان الإسلام الخمسة. |
| “Muhammed aleyhissalâtü vesselâm dini nedir?” Dedim: “İşte Kur’an’dır. Erkân-ı sitte-i iman, erkân-ı hamse-i İslâm, esas maksad-ı Kur’an.” Der '''ikincisinde:'''
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | ويقول في الثاني: ماذا قدّم للفكر وللحياة؟ قلت: التوحيد للفكر، والاستقامة للحياة. وشاهدي في هذا قوله تعالى: |
| “Fikir ve hayata ne vermiş?” Dedim: “Fikre tevhid, hayata istikamet. Buna dair şahidim:
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| </div>
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | ﴿ قُلْ هُوَ اللّٰهُ اَحَدٌ ﴾ (الإخلاص:١)، ﴿ فَاسْتَقِمْ كَمَٓا اُمِرْتَ ﴾ (هود: ١١٢). |
| فَاس۟تَقِم۟ كَمَٓا اُمِر۟تَ قُل۟ هُوَ اللّٰهُ اَحَدٌ
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| </div>
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | ويقول في الثالث: كيف يعالج الصراعات الحاضرة؟. أقول: بتحريم الربا وفرض الزكـاة. وشاهدي قوله تعالى: |
| Der '''üçüncüsünde:''' “Mezahim-i hazıra nasıl tedavi eder?” Derim: “Hurmet-i riba hem vücub-u zekâtla. Buna dair şahidim:
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| </div>
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | ﴿ وَاَحَلَّ اللّٰهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبٰوا ﴾ (البقرة:٢٧٥)، ﴿ يَمْحَقُ اللّٰهُ الرِّبٰوا ﴾ (البقرة:٢٧٦)، ﴿ وَاَق۪يمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ ﴾ (البقرة:٤٣) |
| يَم۟حَقُ اللّٰهُ الرِّبٰوا da.
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| </div>
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr"> | | <nowiki></nowiki> |
| وَاَحَلَّ اللّٰهُ ال۟بَي۟عَ وَحَرَّمَ الرِّبٰوا وَاَقٖيمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ
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| </div> | |
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | ويقول في الرابع: |
| Der '''dördüncüsünde:'''
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| </div>
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | كيف ينظر إلى الاضطرابات البشرية؟ أقول: السعي هو الأساس، وألاّ تتكدس ثروة الإنسان بيد الظالمين، ولا يكنـزوها. |
| “İhtilal-i beşere ne nazarla bakıyor?” Derim: “Sa’y, asıl esastır. Servet-i insaniye, zalimlerde toplanmaz, saklanmaz ellerinde.
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| </div>
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | وشاهدي قوله تعالى: |
| Buna dair şahidim:
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| </div>
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| <div lang="tr" dir="ltr" class="mw-content-ltr">
| | ﴿ وَاَنْ لَيْسَ لِلْاِنْسَانِ اِلَّا مَا سَعٰى ﴾ (النجم:٣٩)، |
| لَي۟سَ لِل۟اِن۟سَانِ اِلَّا مَا سَعٰى وَالَّذٖينَ يَك۟نِزُونَ الذَّهَبَ وَال۟فِضَّةَ
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| | ﴿ وَالَّذ۪ينَ يَكْنِزُونَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلَا يُنْفِقُونَهَا ف۪ي سَب۪يلِ اللّٰهِۙ فَبَشِّرْهُمْ بِعَذَابٍ اَل۪يمٍ ﴾ (التوبة:٣٤). |
| وَلَا يُن۟فِقُونَهَا فٖى سَبٖيلِ اللّٰهِ فَبَشِّر۟هُم۟ بِعَذَابٍ اَلٖيمٍ | |
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| | ما شاء الله على هذا الجواب بمائة مرة. (المؤلف). |
| (Yüz mâşâallah bu cevaba.) | |
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